छोटी चादर
बचपन में ही सिखा दिया गया था कि जितनी चादर हो उतना ही पैर फैलाना चाहिए, तरह तरह के उदाहरण दिए गए और दिमाग ने भी मान लिया कि यही सच है।
लेकिन प्रकृति तो ऐसी नही है सब कुछ उल्टा, कुछ भी स्थिर नही, सब चलायमान। वृक्ष अपनी जड़ें फैलाते हैं, नदियाँ अपना रास्ता बनाती है, पर्वत भी निष्क्रीय नही है, पक्षी भी मौसम के अनुसार जगह बदलते रहते है, चींटियों को कभी रुके हुए नही देखा। मतलब सबका विस्तार हो रहा है। सब आगे बढ़ रहे हैं, तो फिर चादर क्यों नही?
जब ठहराव सच नही है तो क्यों रोका गया हमें? क्यों नही कहा गया कि ये रही तुम्हारी चादर और जैसे जैसे पैर बढ़े अपनी चादर भी बुनते रहना, मेहनत करो, आगे बढ़ो, इस चादर को इतना बड़ा करो कि तुम्हारे जैसे हजारों को इसमें पनाह मिल पाएं।
इस संकुचित सोच, संकीर्ण विचार और ठहराव ने हमारे समाज को और पीछे धकेल दिया। मैं भी मानता हूँ कि जो मिला उसमे खुश रहना चाहिए, संतुष्टि अतिआवश्यक है, लेकिन अपने पैर फैलाने में भी कोई नुकसान तो नही।
अगर सब अपने अपने हिस्से की चादर खुद बुनते तो आज समाज ऐसा नही होता, देश ऐसा नही होता, शायद गरीबी भी कम होती, नेता भी पढ़े लिखे होते।
कोई आरक्षण की मांग नही करता क्योंकि समाज समर्थ होता। सिर्फ एक मानसिक वैचारिक बदलाव कितना कुछ बदल सकता था।
कोशिश है की आने वाली पीढ़ी की सोच बदले, आप भी कोशिश करिये।
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